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महत्त्व

गंगोत्री का महात्म्य देवताओं के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। गंगाजी का नाम, उनके दर्शन और पूजन से ही अत्यंत पुण्यमय होता है। गंगातीर पर निवास करना सौभाग्यपूर्ण होता है। कलिकाल में, मोक्ष प्राप्ति के लिए गंगाजल का सेवन एकमात्र उपाय है। गंगा तटों में भी गंगा उपत्यका का महात्म्य अत्यंत उत्कृष्ट है। इस स्थान पर विष्णुपदी गंगाजी उत्तरवाहिनी होकर प्रवाहित होती है, जिसके कारण इस भूलोक में यह क्षेत्र गंगोत्री नाम से प्रसिद्ध है।

भगीरथ की तपस्थली भूलोक में वैकुण्ठ के समान है, और इस गंगोत्री में उनकी तपस्या का प्रमुख केंद्र भी है। इस स्थान पर भगीरथ शिला सर्वोत्तम है, जिस पर महाराज भगीरथ ने दिव्यसहस्त्र वर्ष तक तपस्या की थी। गंगोत्री में गंगाजी ही प्रमुख देवता हैं, जिसके कारण इस तीर्थ को गंगोत्री कहा जाता है। यह स्थान जान्हवी जी का मूल स्थान और भगीरथ की तपस्थली के रूप में प्रसिद्ध है, और इसलिए इस तीर्थ का महात्म्य अत्यधिक अद्भुत है।

यह सम्पूर्ण गंगोत्री पुरी भैरवझाप नामक पर्वत के नीचे स्थित है। टिहरी रियासत काल में यह मौजा मुखवा का लग्गा था। जो उत्तर में हिमांचल की बुशहर रियासत से लगी थी। दक्षिण में गंगा के दोनों तट, पूर्व में तिब्बत सीमा से लगा हुआ व पश्चिमी में जलन्द्री नदी थी 18वीं सदी से पूर्व गंगोत्री में मन्दिर होने का कोई भी साक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं हो सका है। पुरोहित वर्ग से साक्षात्कार होने पर सिर्फ इतनी ही किवदन्ती मालूम हुई है कि निर्माण से पूर्व उसी शिला के ऊपर पूजन कार्य किया जाता था जहाँ भगीरथ महाराज ने श्री गंगा की आराधना की थी। गंगोत्री में मन्दिर का निर्माण प्रथमतः ग्वालियर महाराज दौलत राव सिन्धियां

ने 18वीं सदी के अंत में करवाया था। तत्पश्चात् 1813 ई० में गोरखा सेनापति काजी अमर सिंह थापा ने एक छोटा मन्दिर बनवाया था । गोरखाओं द्वारा प्रदत्त सनदों का विश्लेषण करने से पता चलता है कि ग्वालियर महाराज द्वारा बनाया गया मन्दिर जल्द ही किसी दुर्घटना से क्षतिग्रस्त हो गया था तथा पुजारी परिवार भी गंगोत्री से पलायन कर गया था अधिक सम्भावना यह है कि मन्दिर के क्षतिग्रस्त होने का कारण 1803 ई0 में इस क्षेत्र में आया विनाशकारी भूकम्प था। गोरखों ने न केवल मन्दिर का निर्माण करवाया अपितु पुजारी परिवार को भी गंगोत्री लाकर पुनः मन्दिर की व्यवस्था सुचारू रूप से प्रदत्त की थी” ।

पं० पुरूषोत्तम दत्त सेमवाल भू०पू० सभापति गंगोत्री मन्दिर समिति इस घटना की व्याख्या इस प्रकार करते हैं। गढ नरेश प्रद्युम्न शाह के कार्यकाल में गोरखों ने गढ़वाल पर आक्रमण कर दिया था, महाराज के युद्ध में व्यस्त होने का लाभ स्थानीय कमीण” ने पूरा-पूरा उठाया |

किंवदंतियाँ

किंवदंती: राजा सगर ने पृथ्वी पर राक्षसों का वध करने के बाद, अपने वर्चस्व की घोषणा के रूप में एक अश्वमेध यज्ञ का मंचन करने का फैसला किया। पृथ्वी के चारों ओर एक निर्बाध यात्रा पर जो घोड़ा ले जाया जाना था, उसका प्रतिनिधित्व, महारानी सुमति के 60,000 पुत्रों एवं दूसरी रानी केसनी से हुए पुत्र असमंजा के द्वारा किया जाना था। देवताओं के सर्वोच्च शासक इंद्र को डर था कि अगर वह ‘यज्ञ’ सफल हो गया तो वह अपने सिंहासन से वंचित हो सकते हैं।

उन्होंने फिर घोड़े को उठाकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया, जो उस समय गहन ध्यान में थे। राजा सागर के पुत्रों ने घोड़े की खोज की और आखिरकार उसे ध्यानमग्न कपिल मुनि के पास बंधा पाया। राजा सागर के साठ हजार क्रोधित पुत्रों ने ऋषि कपिल के आश्रम पर धावा बोल दिया। जब कपिल मुनि ने अपनी आँखें खोलीं, तो उनके श्राप से राजा सागर के 60,000 पुत्रों की मृत्यु हो गई। माना जाता है कि राजा सागर के पौत्र भागीरथ ने देवी गंगा को प्रसन्न करने के लिए अपने पूर्वजों की राख को साफ करने और उनकी आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए उनका ध्यान किया, उन्हें मोक्ष प्रदान किया।

एक अन्य किंवदंती: गंगा, एक सुंदर जीवंत युवती, कहा जाता है, भगवान ब्रह्मा के कमंडल (जलपात्र) से उत्पन्न हुई थी। गंगा के जन्म के बारे में दो संस्करण हैं। एक के अनुसार, भगवान ब्रह्मा ने भगवान विष्णु के पैरों को धोया था, और इस पानी को अपने कमंडलु में एकत्र किया क्योंकि उनके वामन रूप ने पुनर्जन्म में राक्षस बाली से ब्रह्माण्ड को छुटकारा दिलाया था।

एक और किंवदंती है कि गंगा एक मानव रूप में पृथ्वी पर आई और राजा शांतनु से विवाह किया। जिनके साथ पुत्र पैदा हुए जिनमें से सभी को उसने अस्पष्ट तरीके से नदी में फेंक दिया गया। आठवाँ पुत्र – भीष्म – राजा शांतनु के हस्तक्षेप के कारण, बच गया। हालांकि, गंगा ने फिर उसे छोड़ दिया |

तीर्थयात्रा परम्परा

सत्य, क्षमा, इन्द्रियों पर नियंत्रण, दया, सरलता, ज्ञान, धर्म, तप आदि सभी तीर्थ है। तीर्थ में भी सर्वश्रेष्ठ तीर्थ है, अन्त:करण की अत्यधिक विशुद्धि ।

तीर्थ शब्द की व्युत्पत्ति तृ धातु से थ प्रत्यय जोड़ने पर तीर्थ बना, इसका शाब्दिक अर्थ है जिसके द्वारा तरा जाये। तरती पापादितय यस्मात् अर्थात् जिसके द्वारा मनुष्य को पापादि से मुक्ति मिल जाय वही तीर्थ है”। भारत वर्ष में तीर्थ स्थल उन्हीं स्थानों को कहा गया ह |

देवी-देवता अथवा महापुरूष की जन्मस्थली, कर्मस्थली अथवा सःशरीर (सगुण रूप में) दर्शन स्थल है चूँकि श्री गंगा जी ने गंगोत्री में सगुण साकार रूप में महाराज भगीरथ को दिव्य दर्शन दिये तथा इसी स्थान पर अपना कलेवर स्थापित करने की आज्ञा दी थी इसीलिये यह परम पावन स्थान उत्तराखण्ड का प्रमुख तीर्थ है।

गंगोत्री गंगातीर्थ है, यह विश्वास है कि गंगा स्नान द्वारा मनुष्य के पाप धो जाते हैं व जीवन-मरण के बन्धन से मुक्त होकर वह परम तत्व में विलीन हो जाता है। अतः प्रतिवर्ष भारत के कोने-कोने से लाखों व्यक्ति गंगा स्नान व गंगाजल ले जाने हेतु गंगोत्री आते हैं। सन् 1816 ई0 में इस स्थान पर पहुँचे अंग्रेज अधिकारी जे0बी0 फ्रेजर के शब्द थे कि इन पवित्र पर्वतों में हिन्दुओं के जो अनेक तीर्थ हैं उन सब में यह गंगोत्री तीर्थ सबसे अधिक पवित्र है” ।

हिन्दु धर्म में गंगोत्री यात्रा अत्यन्त पुनीत मानी जाती है”। वे लोग बहुत ही भाग्यशाली माने जाते थे जो कई महीनों पैदल चलकर उत्तराखण्ड के चार धामों की यात्रा करते थे ऐसा विश्वास है कि अपने जीवन के अन्तिम दिनों में शंकराचार्य जी गंगोत्री यात्रा आये थे”। पांडव भी के समय गंगोत्री आये व ब्रह्महत्या व कुलहत्या के पाप से मुक्त होने हेतु यहाँ पटांगना नामक स्थान पर यज्ञ किया था। महाराज सोनपाल ने हिमालय की गोद में उस भाग तक विजय की थी जहाँ गंगोत्री है” ।

पन्डा समाज में यह किवदन्ती है कि महाराज सोनपाल गंगोत्री यात्रा आये थे । पन्डा को उन्होंने एक असरफी (स्वर्ण मुद्रा) दान स्वरूप दी थी। परन्तु कुछ दुराग्रही लोगों ने वह असरफी छीन ली थी। असहाय पन्डा जब घर पहुंचा तो उसने अपनी माँ को वस्तु स्थिति से अवगत करवाया। माँ ने उससे तीर्थ यात्री का गोत्र पूछा, पुत्र ने तीर्थ यात्री को शौनक (सोन) गोत्र का बताया। माँ समझ गई कि वे यात्री राजा सोनपाल थे।

पन्डा की माता ने राजा का पीछा किया व मल्ला गांव के नजदीक सुपर्गा नामक स्थान पर राजा से भेंट कर ली थी। उसने राजा को अपना परिचय दिया महाराज सोनपाल ने उसी समय उस स्थान की मिट्टी हाथ पर ली, राजपुरोहित ने संकल्प पढ़ा व राजा ने उस स्त्री से कहा कि जहाँ तक इस मेरे राज्य में तुम्हारी नजर जा रही है, वहाँ तक की भूमि का राजस्व मैं तुम्हें दान स्वरूप देता हूँ” ।

इतिहासकार डा० शिवप्रसाद डबराल का मत है कि प्रसिद्ध गढ नरेश मानशाह ने सुपार्या नामक ग्राम की जमीन श्री गंगा जी को गूंठ रूप में प्रदान की थी”। गोरखों ने तत्कालीन व्यवस्था के तहत उसे यथा स्थित प्रदान की थी। मानशाह के सम्बन्ध में अनेक क्षेत्रीय अनुश्रुतियां भी है।

भोट के लुटेरों ने जब टकनौर क्षेत्र में अत्यधिक लूट-पाट मचाई तो मानशाह ने भोट के लुटेरों को इस क्षेत्र से मार भगाया था। इस क्षेत्र में स्थित गाड़तांग गढ को भी तहस-नहस कर दिया था। मानशाह ने तिब्बत के बौध मठ से सोने के त्रिशूल व कलश छीन कर देवलगढ के गौरजा मन्दिर में चढाये थे” । तिब्बती सरदार काकूबामोर को कर देने हेतु विवश किया था। उसकी ओर से सवा सेर स्वर्ण व एक चौसंग्या मेंढा प्रतिवर्ष श्रीनगर दरबार में भेजा जाता तथा उससे गढ़वाल पर लूटमार न करने का प्रतिज्ञा पत्र भी लिखवा लिया था।

तथ्यों के आधार पर मेरा मत डा० डबराल के मत की पुष्टि करता है। मानशाह के समय मुखवा गाँव में सेमवाल ब्राह्मणों की उपस्थिति सम्भावित हो सकती है। परन्तु मानशाह के समय तक की वंशावली लेखक को प्राप्त नहीं हो सकी है। सनदों को कुर्सीनामे से मिलान करने पर यह राजा प्रदीप शाह के कार्यकाल तक ही पुष्ट होता है।

हो सकता है कि अज्ञात पीढियों का इस क्षेत्र में प्रवास का समय मानशाह के राजकाल तक रहा हो लेकिन सोनपाल के राजकाल तक पंडा परिवार का इस क्षेत्र में प्रवास की पुष्टि किसी अन्य स्रोत से नहीं हो सकी है। सोनिया शब्द की उत्पत्ति शौनक (सोन) शब्द से भी हो सकती है जो कि गढ़ नरेशों का गोत्र था।

इस जमीन का मामला वर्ष 1972 तक गंगोत्री मन्दिर को मिलता रहा है” स्थानीय जन आज भी इसे सोनिया डोखरी के नाम से पुकारते हैं। मल्ला व सुपार्गा के लोग उस खेत में न तो खेती करते हैं व न ही किसी प्रकार का निर्माण कार्य करते हैं। गंगाजी की सम्पत्ति मानकर लोगों ने उसे यथा स्थिति प्रदान कर रखी है”

मन्दिर निर्माण के विभिन्न चरण

18वीं शताब्दी के पूवार्द्ध तक गंगोत्री में मन्दिर निर्माण का कोई भी साक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उपर्युक्त समय से पूर्व गंगा की पूजा सिर्फ एक शिला रूप में व धारा रूप में ही की जाती थी। 18वीं सदी के उतरार्द्ध में मन्दिर निर्माण सिंधिया राजवंश द्वारा किये जाने का वर्णन विभिन्न इतिहासकारों द्वारा किया गया है।

तत्पश्चात् ही गोरखों ने मन्दिर का निर्माण किया था। जो कि सन् 1807 में प्रारम्भ हुआ व सन् 1813 में पूरा हुआ था। 2 गते श्रावण संवत् 1870 को काजी अमर सिंह थापा ने स्वयं मन्दिर की हिन्दु रीति-रिवाजों से पूजन कर पुजारचारी पुन: भगीरथ गणपति पंडा को सौंपी थी”।

गोरखों द्वारा निर्मित मंदिर 16-20 फिट ऊँचा था। जिसमें कत्यूरी शिखर चढ़ाया गया था। इसके बाहर दो-तीन छप्पर जो धर्मशालाएं थी। इनमें यात्री ठहरते थे। जिन्हें यहां स्थान नहीं वे आस-पास की गुफाओं में ठहरते थे।

आधुनिक मन्दिर को जयपुर के महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय ने बनवाया था। गोरखों द्वारा बनाया गया मन्दिर जीर्ण-शीर्ण हो चुका था। इस मन्दिर के निर्माण की एक अलग ही कहानी है। 19वीं शदी के अन्तिम दशक में हरिद्वार कुम्भ मेले के अवसर पर गंगोत्री मंदिर के तत्कालीन प्रबन्धक पं0 विष्णुदत्त एवं गंगोत्री के एक अन्य तीर्थ पुरोहित पं० मानदत की मुलाकात जयपुर महाराज से हुई। पंडों ने महाराजा जयपुर से गंगोत्री मंदिर के जीर्णोद्धार हेतु अंशदान की मांग की थी ।

जयपुर महाराज ने अप्रत्याशित रूप से पंडों से सिर्फ जीर्णोद्धार ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मंदिर के निर्माण की बात कही। साथ ही यह शर्त भी रखी कि मन्दिर निर्माण हेतु टिहरी नरेश की अनुमति आवश्यक है। सन् 1899 में पंडों ने इस कार्य हेतु टिहरी दरबार से सम्पर्क किया” ‘प्रत्युत्तर में महाराजा टिहरी के निजी सचिव के द्वारा पत्र प्राप्त हुआ कि यदि जयपुर सरकार गंगोत्री में मंदिर करना चाहती है, तो महाराजा जयपुर के बजीर महाराजा टिहरी के बजीर से सम्पर्क करें अथवा उनके निजी सचिव टिहरी महाराज के निजी सचिव से स्वयं मिले अथवा पत्र व्यवहार करें” ।

पंडा समाज के प्रतिनिधियों ने दोनों राज्यों की सरकार से लगातार सम्पर्क बनाया रखा। अन्त में फरवरी सन् 1900 में टिहरी दरबार की ओर से जयपुर सरकार को कुछ शर्तों के साथ मन्दिर निर्माण की अनुमति मिल गई। जयपुर सरकार ने शर्त रखी थी कि मन्दिर के अन्दर मूर्ति एवं मन्दिर व्यवस्था जयपुर सरकार की ही होगी, जिसे पन्डा प्रतिनिधियों ने स्वीकार नहीं किया।

सरकारी स्तर पर कई वर्षो तक बातचीत चलती रही। तत्पश्चात् टिहरी दरबार के विशेष सचिव के द्वारा सन् 1913 में एक राजाज्ञा प्रेषित की गई कि साबिक मुताबिक मंदिर पर मंदिर निर्माण के पश्चात् भी आपका हक रहेगा। निर्माण के पश्चात् जयपुर दरबार का मंदिर पर कोई हक नहीं रहेगा” ।

तत्पश्चात् 1916 में मंदिर निर्माण का कार्य प्रारम्भ हो गया तथा सन् 1922 में पूरा हुआ। सन् 1922 में ही वैदिक परम्परा के द्वारा मंदिर में प्राचीन मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की गई। तत्कालीन समय में मन्दिर निर्माण की लागत 3 लाख रू० आयी थीं। आधुनिक मन्दिर 10 मी0 ऊँचा है व. 

इसका निर्माण 2 मी0 ऊँचे चबूतरे पर हुआ है। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। मन्दिर गोल ग्रेनाइड शिलाओं को तराशकर बनाया गया है। यह आकार में विराट न होतु हुए भी भव्य एवं आकर्षक है।

मन्दिर का प्रवेश द्वार पूर्व दिशा से है। गवाक्ष राजस्थानी शैली में व बरामदे के स्तम्भ पहाड़ी शैली में है। इसके 10 छोटे अंग शिखरों के ऊपर एक विशाल शिखर है। सूर्योदय के समय स्वर्णिम किरणों से मन्दिर की आभा अतीव दैदिप्तमान लगती है।” इस उपलक्ष्य में सन् 1922 में एक भव्य यज्ञ का आयोजन किया गया था”। सम्पूर्ण मन्दिर का निर्माण उसी शिला के ऊपर किया गया है जिसे भगीरथ शिला” कहते हैं ।

मूर्तियों एवं मंदिरों का परिचय

मुख्य मन्दिर की मूर्तियों का विवरण इस प्रकार है सर्वप्रथम चाँदी के सिंहासन के ऊपर मकर वाहिनी गंगाजी की मूर्ति जो कि पाषाण शिला के रूप में विराजमान है। अक्षय तृतीया से गंगा सप्तमी के दिन तक शिला रूप में ही दर्शन करने की परम्परा है। गंगा सप्तमी के दिन पाषाण शिला पर स्वर्ण मुकुट व चाँदी के कलेवर (आभूषण) चढाये जाते हैं।

गंगाजी की मूर्ति के ठीक नीचे बाय से दाहिनी ओर देखने पर अन्य मूर्तियां का विवरण इस प्रकार है, सर्वप्रथम दुर्गा जी की श्याम वर्ण की मूर्ति है, तत्पश्चात् माँ लक्ष्मी, माँ सरस्वती व माँ अन्नपूर्णा जी की गौर वर्ण की मूर्ति एवं यमुना जी व राजा भगीरथ की श्यामवर्ण की मूर्ति है, अन्त में जान्हवी जी की गौर वर्ण की मूर्ति है।

इन मूर्तियों के सम्मुख ठीक नीचे गणेश जी व हिमालय जी विराजमान है, तथा दांयी ओर मुस्तफा, गौमुखी व वरुण कलश है । इनके दाहिने ओर छड़ी बल्लभ इत्यादि रखे गये हैं। श्री गंगा जी की मूर्ति के ठीक नीचे रावल गद्दी है, जहाँ पर बैठकर मुख्य रावल श्री गंगाजी का व अन्य मूर्तियों का श्रृंगार, पूजन तथा अभिषेक करता है। गंगोत्री मन्दिर की गंगा पंचायत का वर्णन स्वामी तपोवन महाराज ने इन शब्दों में व्यक्त किया है।

गंगे मातरनुस्मरामि सततं त्वन्मूर्ति मत्यद्भुतां । देवीं दैवतदुर्लभां यमुनया वाचाऽत्रसंपूर्णया ।। भक्तेनाथ भगीरथेन भगवतपादैश्व पादार्चकै । र्या नित्यं समुपाश्रिता विजयते गंगोत्तरी सद्यनि ।।

श्री गंगाजी की मूर्तिमयी रूप को मै प्रणाम करता हूं जो कि देवी, दैवताओं के लिये भी दुर्लभ है। श्रीगंगाजी के साथ सूर्य पुत्री यमुना तथा श्रीचरणों में हाथ जोड़े भक्तों में राजा भगीरथ भी है। इस प्रकार उज्जवल रूप में श्री गंगोत्री मन्दिर में विराजमान आप भक्तों को दर्शन दे रही है। “

गंगा मन्दिर के सहायक मन्दिरों में शिव मन्दिर में शिवलिंग है जिसमें ऊपर अभिषेक करता हुआ कलश रखा गया है मन्दिर में शिव-पार्वती की संगमरमर की मूर्ति एवं त्रिशूल है। इसमें सामने गणेश मन्दिर है, जिस पर गणेश जी व भैरव जी की मूर्ति है, गणेश मन्दिर के पीछे गंगा घाट की ओर हनुमान मन्दिर है यहाँ पर हनुमान जी की छोटी संगमरमर की मूर्ति है। इसके ठीक नीचे गंगा घाट के किनारे भगीरथ मन्दिर है।

पिछली समिति (वर्ष 2006 से 2009) के कार्यकाल में भगीरथ शिला के पूर्व भाग में रिद्धि-सिद्धि के मंदिर का निर्माण हुआ है। गंगा जी के मन्दिर के ठीक सामने भैरव ध्वज तथा भैरव धुना है, जिसे चौपाल कहते हैं एवं ठीक पीछे श्री गंगा जी की भोग लंगर है जहाँ नित्य श्री गंगाजी का राजभोग सेमवाल ब्राह्मणों द्वारा ही बनाया जाता है एवं सभी पुरोहित यहाँ भोजन ग्रहण करते हैं समय-समय पर यहाँ श्रद्धालु यात्रियों द्वारा विशाल भण्डारों का आयोजन भी किया जाता है।

गंगोत्री पुरी से लगभग 10 कि०मी० पीछे उत्तरकाशी मार्ग पर भैरवघाटी नामक स्थान है, यहाँ पर भैरव मन्दिर है। भैरव को गंगोत्री पुरी का कोतवाल माना जाता है, इसका नाम आनन्द भैरव है, सन् 1813 ई0 में यहाँ पर काठ का मन्दिर गोरखा सेनापति अमर सिंह थापा ने बनवाया था इस मन्दिर पर 500 रू0 की लागत आयी थी। तत्पश्चात् एक छोटा मंदिर स्वयं मंदिर समिति ने 20वीं शताब्दी के 6-7 वें दशक में बनवाया था।

वर्तमान मंदिर वर्ष 2000 से 2003 की मंदिर कार्यकारिणी के समय का बना हुआ है। गंगोत्री मन्दिर की भाँति यहां के कपाट भी बैशाख शुक्ल पक्ष की अक्षय तृतीय को श्रद्धालुओं के दर्शनार्थ खोल दिया जाता है व गंगोत्री के कपाट बन्द होने के दिन ही यहां के कपाट बन्द होते हैं।

गंगोत्री मन्दिर की दैनिक पूजा

श्रीगंगोत्री मन्दिर की दैनिक पूजा नियमपूर्वक होती है। पुजारी व सह पुजारी को रात्रि 2 बजे जागना होता है। शौच स्नान आदि कर्म से निवृत होकर ठीक 3 बजे मध्य रात्रि में वे मन्दिर प्रवेश करते हैं। मन्दिर प्रवेश करते समय मुख्य रावल जल से भरे हुए कलश से प्रथमतः सभी सहायक मन्दिरों की मूर्तियों को अभिषेक करता है। तत्पश्चात् पुनः कलश भर कर मुख्य मन्दिर के कपाट खोलकर वह मन्दिर प्रवेश करता है।

मन्दिर प्रवेश करके व संध्या बन्धन से निवृत होकर पुजारी मूर्तियों को स्नान करवाता है। गन्ध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप आदि सामग्रीयों से मूर्तियों का श्रृंगार तथा दैनिक हवन करता है। तत्पश्चात् ठीक 6 बजे प्रात: मंगल आरती होती है। मंगल आरती के पश्चात् सह पुजारी श्रद्धालुओं को चरणामृत प्रसाद आदि वितरित करता है एवं मुख्य पुजारी रावल गद्दी पर बैठकर गंगा सहस्त्रनाम का पाठ व गंगा जी के बीज मन्त्र का जाप करता है। ठीक 9 बजे प्रातः मुख्य रावल द्वारा श्री गंगा जी को राजभोग अर्पित होता है। प्रथमत: वह मन्दिर में मूर्तियों को राजभोग अर्पित करता है। द्वितीय वह नदी तट पर जाकर धारा को राजभोग अर्पित करता है।

राजभोग अर्पित होने से पहले न तो कोई व्यक्ति रावल जी को छू सकता है, र न ही रावल किसी दूसरे व्यक्ति से बात करता है। मुख्य रावल को उस दिन गंगा मैया जैसे आदर्श रूप से देखा जाता है। राजभोग अर्पित होने के पश्चात् दिन 2 बजे तक पुजारी व सहपुजारी यात्रियों को दर्शन के करवाते हैं। 2 बजे से 3 बजे दोपहर तक मन्दिर के कपाट विश्राम हेतु बन्द हो जाते हैं। पुन: 3 बजे से सांय 6 बजे तक दर्शन हेतु कपाट खोल दिये जाते हैं

दिन दोपहर विश्राम की परम्परा नहीं है। ठीक 6 बजे सांय मन्दिर के अन्दर पर्दा डाल दिया जाता है। इस दौरान मुख्य पुजारी मूर्तियों का श्रृंगार / पूजन करता है तथा दो अन्य सहायक पुजारी पूजन कार्य हेतु सहायतार्थ होते हैं ग्रीष्मकाल में सांयकाल को ठीक 7.45 पर तथा श्रीकृष्णजन्माष्टमी के प चात् सांय 6.30 व विजयदशमी के पश्चात् सांय 6.00 बजे मंगल आरती होती है। ढोल-नगाड़े जैसे वाद्य यन्त्रों द्वारा संपूर्ण वातावरण मंगलमय लगता है।

पुजारी व 2 सह पुजारी मंगल आरती करते हैं। मुख्य पुजारी के हाथ में घी की बत्ती युक्त आरती होती है तथा दोनों सह पुजारी चाँवर डोलते हैं। प्रथमतः मन्दिर के गर्भ गृह की आरती होती है। तत्पश्चात् पुजारी प्रदक्षिणापथ पर आकर दिशाओं की आरती करते हैं। इनके साथ सर्व प्रथम गंगाजी का छड़ी बल्लभ लिये चपरासी होता है तत्पश्चात् चाँवर लिये प्रथम सह पुजारी फिर मुख्य पुजारी व अन्त में सहपुजारी द्वितीय चाँवर लिए होता है।

आरती की प्रक्रिया पूरी होने के पश्चात् श्री गंगा जी को रात्रि का राजभोग अर्पित होता है। तत्पश्चात् मुख्य रावल अपनी गद्दी पर बैठकर गंगा जी के बीजमन्त्र का जाप करता है व सहायक पुजारी, ड्यूटी मैनेजर, 2 अन्य पुजारी व छड़ी बल्लभ लिये रसोईया या चपड़ासी श्रद्धालुओं को दर्शन करवाते एवं उन्हें चरणामृत प्रसाद देते हैं। सांयकालीन आरती में सभी पुजरियों का उपस्थित होना अनिवार्य है।

रात्रि 9 बजे ड्यूटी मैनेजर की उपस्थिति में आज का मुख्य पुजारी, सह पुजारी को मन्दिर के अन्दर के कीमती आभूषणों व अन्य जरूरी वस्तुओं का चार्ज देता है। चार्ज हेतु एक आवश्यक रजिस्टर मन्दिर के अन्दर होता है। जिसमें चार्ज देने/लेने वाले व ड्यूटी मैनेजर का नाम व पिता का नाम तथा हस्ताक्षर होते हैं आज का प्रथम सह रावल कल का मुख्य रावल होता है ।

वाद्य यन्त्रों वाले बाजगी” मुखवा गांव के शिल्पकार समाज के लोग हैं। ये 4 परिवार हैं तथा गंगोत्री में गंगाजी को सपूज्य रखने हेतु ये लोग आपस में एक-एक परिवार प्रतिवर्ष वारिदारान के रूप में होते हैं।

मन्दिर कमेटी की ओर से इन्हें भोजन व आवास की व्यवस्था एवं श्रद्धालु यात्रियों की गंगाजली की सील पैक का कार्य दिया जाता है। जिससे यात्राकाल में इनकी अच्छी आय होती है। बदले में ये लोग रसोई के लिए भोजपत्र व लकड़ी देते थे परन्तु 90 के दशक के पश्चात् पर्याप्त मात्रा में लकड़ी उपलब्ध न करवा पाने के कारण अब लकड़ी की व्यवस्था मंदिर समिति स्वयं करती है।

मन्दिर के पुजारीयों तथा समिति के सदस्यों हेतु आचार संहिता

गंगोत्री मन्दिर के पुजारीगण साल भर तक तीर्थ संस्कार में वर्णित होते हैं । वे भोजन व जलपान केवल श्री गंगा जी की भोग लंगर में पायेंगे। यदि गंगोत्री से अपने घर चले गये तो घर में उस स्त्री द्वारा बनाया हुआ भोजन ग्रहण करेंगे जो रजस्वला न हो या रजस्वला हुए उसे एक सप्ताह से अधिक हो गया हो व उसने ऋतु स्नान कर लिया हो तथा सप्ताह पूरा होने के अंतिम दिन वह गंगा स्नान कर चुकी हो व पंचगव्य का सेवन कर चुकी हो तथा प्रत्येक दिन जब तक वह पुजारी का भोजन तैयार करती हो उसे गंगा स्नान करना अनिवार्य है। पुजारी घर में भी उसी पुरुष के द्वारा तैयार भोजन ग्रहण करता है। जो यज्ञोपवीतधारी हो।

इसी प्रकार की आचार संहिता समिति के सदस्यों हेतु भी है। वह भी मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश कर सकता है चूंकि वह भी उसी सेमवाल परिवार का सदस्य होता है व जब तक वह समिति का सदस्य रहता है उसके आचार-विचार, खान-पान व अन्य आम दिनचर्या पुजारी जैसे ही होती है लेकिन कार्यकारिणी/मंदिर के कार्यों हेतु उसे कई बार राज्य/देश के किसी भी कोने में जाना पड़ सकता है।.

ऐसी परिस्थिति में मैनेजर को यह सुविधा प्राप्त होती है कि वह अपने रिश्तेदारों/यजमानों की रसोई में बैठकर शुद्ध सात्विक भोजन ग्रहण कर सकता है। रिश्तेदार ब्राह्मण परिवारों के घर में रसोई को गौमूत्र / गंगाजल से पवित्र कर शुद्ध / सात्विक, पुरुष/महिला को स्नान के पश्चात् कच्ची / पक्की रसोई बनाने का अधिकार है । यजमानों के घर सिर्फ पक्की रसोई ग्रहण करने की परम्परा है। अन्य कोई भी व्यक्ति चाहे वह हकदार ही क्यों न हो बिना किसी ठोस करण के मन्दिर के गर्भ गृह में प्रवेश नहीं कर सकता है। अपवाद स्वरूप परिस्थितियों में कुछ उप नियम जरूर हैं।

वर्ष 1991 में भूकम्प के समय पुरोहित (सेमवाल) परिवार के पाँचों थोक सूतक / पातक हो गये थे चूँकि श्रीगंगाजी / मंदिर को सपूज्य रखना था। अतः बुजुर्ग पुरोहितों द्वारा निर्णय सिन्धु के अवलोकन के पश्चात् यह निर्णय लिया गया कि श्री कमलेश कुमार सेमवाल पुत्र श्री गौरीदत्त सेमवाल थोक” नं0 01 एवं श्री गंगा प्रसाद सेमवाल पुत्र श्री केदारदत्त सेमवाल थोक नं0 02 आजीवन ब्रह्मचारी हैं |

परन्तु उन्होंने सन्यास ग्रहण नहीं किया है वे विवाह के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार से गृहस्थी हैं। अत: ऐसी परिस्थितियों में सिर्फ वे ही श्री गंगाजी /मन्दिर को सपूज्य रख सकते हैं। अमुक व्यक्तियों ने उस समय विशेष परिस्थिति के मध्य नजर लोकमत का सम्मान करते हुये थोकों के शुद्ध होने तक पूजन कार्य को सम्पादित किया था ।

स्मरण रहे कि गंगोत्री / मुखवा में किसी भी परिस्थिति में मुखवा के सेमवाल ब्राह्मणों के अतिरिक्त (जो कि परम्परागत रूप से पूजा का हक रखते हैं) कोई भी अन्य ब्राह्मण / व्यक्ति पूजा का अधिकारी नहीं हो सकता है।

ऐसी ही पूजन परम्परा टकनौर के सुक्खी ग्राम के नाग देवता की भी है। उसके मंदिर के गर्भ गृह में सेमवाल ब्राह्मणों के अतिक्ति कोई भी व्यक्ति न तो प्रवेश कर सकता है व न ही नाग देवता का पूजन-अर्चन कर सकता है। यदि कोई श्रद्धालु देवता की पूजा करना भी चाहे तो पुजारी केवल मुखवा के सेमवाल परिवार का ही होना चाहिये जो कि गंगोत्री में श्रीगंगाजी की पूजा का हक रखता हो।

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