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गंगोत्री मंदिर प्रबन्धन समिति

श्री गंगोत्री मन्दिर की व्यवस्था को उत्तम रूप से चलाने हेतु पुरोहितों की एक समिति है। जिसे श्री 5 मन्दिर समिति गंगोत्री कहा जाता है। श्री 5 का अर्थ है कि पांच भाई सेमवालों के वंशज मन्दिर के परम्परागत हकदार है। नियमावली 1939 के अनुसार सेमवालों के पांच थोक में 5 सदस्य जो यज्ञोपवीतधारी होते थे वे ही मन्दिर समिति के सदस्य होते थे। उन्हें अपने थोक के आधे से अधिक यज्ञोपवीतधारी सदस्यों का हस्ताक्षरयुक्त विश्वास पत्र हासिल करना पड़ता था ।

ये 5 सदस्य अपने सेमवाल परिवार से एक लेखाकार (सचिव) चुनते थे। समिति का अनुमोदन टिहरी दरबार करता था । ये सदस्य ही नीतिगत फैसले लेते तथा लेखाकार इसके फैसलों को लेखबद्ध एवं क्रियान्वयन करता था।लेखाकार ही पूरे वर्ष की आय-व्यय का ब्यौरा एक रजिस्टर पर रखता था । लेखाकार वस्तुतः समिति का मंत्री होता था। वर्तमान में भी वह ही मंदिर का सर्वोच्च प्रशासनिक अधिकारी/ नौकर शाह है।

पांच सदस्यों में सभापति, कोषाध्यक्ष, सोना, चांदी व वस्त्र के भण्डारी नियुक्त होते थे, पुजारीगण गंगाजी को सपूज्य इन्हीं की देखरेख में करते थे, इस समिति का कार्यकाल 5 वर्ष का होता था। पांच सदस्यों के अतिरिक्त मन्दिर में एक गूंट गांव का सदस्य एवं तीन अन्य मनोनीत सदस्य भी होते थे, ये बैठक में भाग लेते, सुझाव देते व प्रश्न पूछ सकते थे, परन्तु नीतिगत विषयों पर मत देने का अधिकार इन्हें नहीं था।

वर्ष 1939 की नियमावली में वर्ष 1997 में आंशिक संशोधन किया गया। अब प्रत्येक थोक से एक की जगह 2 सदस्य व कुल 5 की जगह 10 सदस्य चुनने की व्यवस्था की गई तथा सचिव के साथ सह-सचिव का पद भी सृजित किया गया है। सचिव को पारिश्रमिक स्वरूप मानदेय मिलता है।

सन् 1982ई0 से पूर्व उसका मानदेय 100 रु0 वर्ष-1991-92 तक 500.00 रू0 तत्पश्चात् 2500 रु0 मासिक हुआ। सह-सचिव पद सृजन के साथ ही मानदेय 1250रु0 मासिक निधारित हुआ। वर्तमान में सचिव / सह-सचिव का मानदेय क्रमश: 3500 रु0 व 2500 रु0 है। अप्रैल वर्ष 2002 में श्री 5 मंदिर समिति को विधिवत् पंजीकृत कर इसे ट्रस्ट का रूप दिया गया है।

चढावा बॉक्स की आय से 30% भाग के अधिकारी उस वर्ष के सभी 15 पुजारीगण हैं जो कि उनके द्वारा निभायी गयी वर्षभर की सेवा का पुरस्कार है ।मन्दिर समिति की आय के अन्य स्रोतों में विशेष पूजा रसीद, ब्राह्मण भण्डारा रसीद, जीर्णोद्धार रसीद व श्रद्धालु यात्रियों द्वारा प्रदत्त अन्य प्रकार के अनुदान यथा- निर्माण अनुदान, बर्तन अनुदान, खाद्य सामग्री अनुदान व दवाईयों सम्बन्धित अनुदान है।

अनुदानकर्ता दानी दाताओं को आयकर अधिनियम की धारा 80 जी के अन्तर्गत रसीद उपलब्ध करवाई जाती है। मन्दिर की व्यय राशि का एक लेखा रजिस्टर है। इसमें प्रतिदिन का व्यय दर्ज किया जाता है। मन्दिर समिति की ओर से प्रतिदिन भोग-लंगर संचालित होती है। इसमें प्रत्येक पुरोहित परिवार के एक सदस्य को दोनों समय भोजन मिलता है। जिसको हक-पत्तल कहते हैं।

यह पुरोहित परिवार की मन्दिर को समय-समय पर दी गई सेवाओं का पुरस्कार माना जाता है । पुरोहित परिवार के वे वृद्ध व्यक्ति जो कम से कम 60 वर्ष की उम्र पार कर चुके हों तथा जीविकोपार्जन में असमर्थ हो ऐसे व्यक्ति को उनके पारिवारिक सदस्यों से अतिक्ति मानते हुये पिछली कुछ समितियों ने उदारतापूर्वक उनकी पत्तल को अतिक्ति रूप में समायोजन किया है।

आकस्मिक अतिथियों तथा साधु-सन्तों को भी अलग से भोजन उपलब्ध करवाया जाता है। साथ ही ऐसे कर्मकाण्डी व्यक्ति जो तीर्थ यात्रा पर आते हैं परन्तु होटल, ढाबों इत्यादि में अन्न जल ग्रहण नहीं करते हैं। ऐसे व्यक्ति यदि मंदिर समिति के संज्ञान में आते हैं तो उनको भी महा प्रसाद के रूप में भोजन उपलब्ध करवाया जाता है।

भोग लंगर में समय-समय पर श्रद्धालु यात्रियों द्वारा भव्य भण्डारे का भी आयोजन किया जाता है। इसमें ब्राह्मणों के अतिरिक्त भण्डारा आयोजक यजमानों को भी सपरिवार महा प्रसाद उपलब्ध करवाया जाता है। मन्दिर के कार्यो को सुचारू रूप से संचालन हेतु लगभग 35-40 मन्दिर के स्वयंसेवी हैं, उनको समिति की ओर से भोजन, मानदेय, कपड़े, आवास व अन्य आवश्यक सुविधायें मिलती है।

प्रतिवर्ष आवश्यकतानुसार श्री गंगा जी की सम्पत्ति का निर्माण व जीर्णोद्धार भी किया जाता है। जिस पर लाखों रू० का खर्च आता है। संभावित आय एवं व्यय के निर्धारण हेतु यात्रा काल के प्रारम्भ होने से एक माह पूर्व श्री 5 मन्दिर समिति द्वारा महासभा (हकदारों) की आम बैठक आमन्त्रित की जाती है।

जिसमें गतवर्ष की आय-व्यय का ब्यौरा महासभा को विस्तार से बताया जाता है। तत्पश्चात् चर्चा/परिचर्चा होती है तथा नवीन सत्र हेतु महासभा के सामने अनुमानित आय-व्यय का प्रस्ताव रखा जाता है। चर्चा/परिचर्चा एवं आवश्यक संशोधन के उपरान्त महासभा

परिवार का प्रत्येक सदस्य उसकी सेवा हेतु सदैव तत्पर रहता है। फिर भी यह कलियुग है एवं युग के प्रभाव से सम्पूर्ण मानव जाति प्रभावित है। कब व कहाँ किसी भी व्यक्ति के विचार बदल जाएं, कब वह शंकर को कंकड़ समझ बैठे कुछ भी कहा नहीं जा सकता है। संस्थाओं को यदि पवित्र व पारदर्शी रखना है |

तो प्रत्येक जागरूक व्यक्ति का यह नैतिक कर्तव्य है कि वह संस्थाओं के कामकाज पर बारीकी से नजर रखें। संस्था से जुड़े व्यक्तियों के गुणों व दोषों का मूल्यांकन करते रहें तथा जहाँ पर ऐसा प्रतीत हो कि व्यक्तिगत हित संस्थागत हितों पर हावी हो रहे हों तत्काल हस्तक्षेप करके ऐसा करने से रोका जाय ।

विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब-जब किसी संस्था, समाज, व राष्ट्र पर व्यक्तिगत हित हावी हुये हैं तो वह संस्था, समाज व राष्ट्र नष्ट हो गये एवं उसके दुष्परिणाम उ सम्पूर्ण समाज को भुगतना पड़ा है। श्री गंगाजी की भक्ति का आशय सिर्फ मन ही नहीं अपितु कर्म व वचन भी है । संस्थाओं पर व्यक्तिगत हित हावी न हों हमें सत्त एवं निरन्तर ऐसे प्रयास करने चाहिये

अन्यथा

अन्य क्षेत्रे कृतं पापं तीर्थक्षेत्रे विनश्यति ।

तीर्थक्षेत्रे कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति । ।

कल्प केदार क्षेत्र में श्रीकण्ठ पर्वत के नीचे धराली ग्राम है। इस पर्वत से दूध गंगा आती है। इसी के निकट पश्चिम की ओर मैनाक शिखर है,

गंगा घाट की पुरोहितचारी-

अन्य तीर्थो की भांति गंगोत्री में भी घाट” के पन्डे / पुरोहित हैं। गंगोत्री में घाट के पंडा/पुरोहित भी सेमवाल ब्राह्मण हैं प्रत्येक परिवार के अपने यजमानी क्षेत्र है। जो मूलरूप से जिला व जाति” (Title) के आधार पर बंटे हुए हैं परन्तु अभी तक भी इस व्यवस्था में बहुत कुछ खामियां हैं। इन खामियों को दूर करने हेतु समय-समय पर प्रयास भी हुये हैं तथापि इसमें आशातीत सुधार नहीं हो सका है। इनमें सुधार की प्रक्रिया भी बहुत ही धीमी है।

पिछले एक दशक से मेरा अनुभव है कि नई पीढी के शिक्षित युवकों ने इन खामियों को समझा है। वे जिला एवं जाति बांट के प्रति संवेदनशील हैं। पिछले कुछ वर्षों में नवयुवकों ने कार्यकारिणी गठित कर इस समस्या से निजात पाने हेतु गम्भीर प्रयास भी किये हैं। सिद्धान्त: यह स्वीकार कर गया है कि जो परिवार/व्यक्ति पुश्तैनी रूप से जिस जिले के पंडे हैं। उस जिले का परम्परागत पुरोहित (पंडा) उसी व्यक्ति/परिवार को माना जाय ।

अब दूसरों के यजमानी जिलों में हस्तक्षेप की प्रवृत्ति में काफी कमी आ गई है। पुरोहितचारी पर निर्भर युवकों ने नवीन ऐसे जिलों को बही खाते में लिखना शुरू कर दिया है जिनकी परम्परागत पुरोहितचारी किसी दूसरे व्यक्ति के पास नहीं है। यदि कुछ है भी तो आपस में सामाजिक समझौते के आधार पर संटवारा कर लिया जाता है। पिछले 2 दशक में लगभग 50 नये यजमानी जिलों का लेखन प्रारम्भ हुआ है।

फलस्वरूप आज लगभग 50 से 60 पुरोहित परिवारों ने नवीन यजमानी जिले बना लिये हैं वे अपने जिलों में ही व्यस्त रहते हैं तथा पुस्तैनी यजमानी जिलों वाले पंडा भी अपने पुश्तैनी यजमानी जिलों को सम्भालने में ही व्यस्त हैं जिससे धीरे-धीरे सुधार की सम्भावनाऐं बन रही हैं। फिर भी इस सुधारात्मक कार्य में और गति की आवश्यकता है। गंगोत्री के पन्डों के पास बहुत अधिक पुराने यजमानी रिकार्ड नहीं मिले हैं।

जिसका कारण वर्ष 1966 की गंगोत्री पुरी के भीषण अग्निकाण्ड को माना जाता है। जिसमें पन्डों के अधिकांश बही खाते व मकान जल कर राख हो गये थे। प्रत्येक तीर्थ यात्री तीर्थ पर पहुंचते ही सर्वप्रथम अपने पुरोहित की पहचान करता है, तीर्थ में देवता, साधु व देशी श्रद्धालुगण, यात्रियों के अपने पन्डे होते हैं, पण्डा/पुरोहित गंगा घाट पर तीर्थ विधान कराते तथा गंगा घाट / मन्दिर प्रांगण में सुफल आशीर्वाद” प्रदान करते हैं ।

हैं। मंदिर में गर्भ गृह की फोटो लेना सख्त मना है। उपर्युक्त सभी कर्म यजमान की श्रद्धा व शक्ति पर निर्भर करता है। लाचारी व जोर जबरदस्ती जैसी कोई शर्त नहीं हैं। यजमान को भी चाहिये कि वे अपनी सामर्थ्यानुसार ही तीर्थ विधान करें।

मन्दिर के गर्भ गृह में उस साल के वर्णित पुजारियों/सदस्यों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों का प्रवेश निषेध है। गंगोत्री में मुख्य श्री गंगाजी की प्रदक्षिणा पथ तक दर्शन / प्रसाद ग्रहण करने हेतु देशी/विदेशी सभी प्रकार के लोगों के लिये सुविधा उपलब्ध है। वहां पर यात्री प्रसाद ग्रहण करता है व गर्भ गृह की प्रदक्षिणापद की परिक्रमा करता है।

तत्पश्चात पुरोहित अपने यजमान का सपरिवार नाम अपने बही खाते पर अंकित करता है, कि वह किस तिथि को श्री गंगोत्री यात्रा पर आया व उसका पुरोहित कौन है। वह उसी खाते पर यह स्पष्ट हिदायत देता है कि उसके वंशज अपने पूर्व पुरखों का अनुकरण करते हुए अमुक पण्डा या उसके वंशजों को ही पुरोहित माने व उन्हीं से तीर्थ विधान करवाये

अन्त में यजमानों को सुफल आर्शीवाद देकर पुरोहित विदा करता है, सुफल आशीर्वाद में पुरोहित गंगा तुलसी की पत्ती, ब्रह्मकमल का पुष्प, भोजपत्र, श्रीफल व लायचीदाना आदि का पैकेट बनाकर देने की परम्परा है।

शीतकाल में दिसम्बर व जनवरी के माह प्रत्येक पुरोहित परिवार का सदस्य अपने यजमानी क्षेत्र में जाता है व जो यजमान गंगोत्री यात्रा नहीं आये होते हैं उनके घर-घर जाकर गंगाजल का कलश दे आते हैं। गंगाजल को गंगोत्री से देश के विभिन्न कोनों तक पहुंचाना प्राचीन परम्परा है” ।

गंगोत्री यात्रा का पूर्ण रूप यह माना जाता है कि गंगोत्री का जल ले जाकर सुदूर दक्षिण में रामेश्वर जाऐं” वहाँ भगवान शंकर का अभिषेक करवायें तत्पश्चात् वहाँ की भूमि से नारियल के खोपड़े पर रेत लाकर गंगोत्री स्थित गौरीकुण्ड में विर्सजित करें, पटांगना में यज्ञ करें, उस चक्र में नारियल के खोपड़े को पूर्णाहुति स्वरूप जला दिया जाय तो सम्पूर्ण यात्रा मानी जाती है। उत्तर से दक्षिण तक फैली यह परम्परा भारत की सांस्कृतिक एकता का परिचय करवाती है” ।

गंगा घाट में पुरोहितचारी करने वाले व्यक्ति के लिए आवश्यक है कि वह यज्ञोपवितधरी हो व उसे गंगा पूजा का पूर्णत: ज्ञान हो। तीर्थ से बहार व पुरोहितचारी के अतिरिक्त पन्डा / पुरोहितों के लिए अन्य कर्मकाण्ड वर्जित है” ।

पण्डा पुरोहितों के हक्क / अधिकार-

गंगोत्री मंदिर/तीर्थ की पुजारचारी/पुरोहितचारी किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्पति नहीं है। यह सम्पूर्ण पुजारी / पुरोहित समाज की पुश्तैनी व साझी धरोहर है। अतः किसी भी पुजारी / पुरोहित को यह अधिकार नहीं है कि वह इस पुश्तैनी धरोहर को खरीद या बेच सके अथवा पुरस्कार स्वरूप किसी दूसरे को दे सकें। पुजारचारी/पुरोहितचारी के हक्क /अधिकार निम्न हैं-

1. यजमानी अधिकार उसी जाति को मिलते हैं जिस जाति के पण्डा/पुजारी हैं। यदि कोई पण्डा/पुजारी अन्य जाति के व्यक्ति को धर्मपुत्र बनाता है या घरजवांई रखता है या कम असल गंगाड़ी या ढाड़ी पत्नियों से उत्पन्न अथवा दूसरे वर्ण की पत्नियों से उत्पन्न पुत्रों को यह अधिकार देना भी चाहे तो नहीं दे सकता है अर्थात् पथ-भ्रष्ट होने, अर्न्तजातीय विवाह या जातिच्युत होने पर उसके ये अधिकार स्वतः ही समाप्त हो जायेंगे।

2. यजमानी अधिकार जहां तक उनका सम्बन्ध यजमानों से है। उत्तराधिकारियों में से किसी व्यक्ति को छोड़कर अन्य व्यक्तियों को नहीं दिये जा सकते हैं।

3. नारियों को इन अधिकारों या कर्तव्यों का अधिकार नहीं दिया जाता है। ये विशेषाधिकार उन वर्ण या जातियों के लोगों को नहीं सौंपें जा सकते जिन्हें इनके प्रयोग का अधिकार समाज मे प्राप्त नहीं है। कोई भी बाहरी व्यक्ति आकर पण्डा/पुरोहितचारी नहीं कर सकता है।

उपर्युक्त का जिक्र समय-2 पर निर्मित नियमावलियों में तथा टिहरी रियासत की विधि संहिता नरेन्द्र हिन्दू लॉ (लेखक पं० हरिकृष्ण रतूड़ी भू०पू० बजीर टिहरी रियासत) में विस्तार पूर्वक किया गया है। साथ ही डा० शिव प्रसाद डबराल की पुस्तक उत्तराखण्ड यात्रा दर्शन पृष्ठ 410-12 पर भी किया गया है।

श्री गंगा पुरोहित सभा-

श्री गंगा पुरोहित सभा की स्थापना वर्ष 1962 में हुई थी इसका उद्देश्य पन्डा समाज के हक – हकूक की रक्षा करना एवं पन्डा समाज की जो समस्याऐं हैं उन्हें दूर करना था। पुरोहित सभा की गंगोत्री में सम्पति है। जिसमें एक धर्मशाला व अन्य करीब 5-6 छोटे-बड़े आवास गृह है। इसके अतिरिक्त भगीरथ मन्दिर भी है। जिसका जीर्णोद्धार वर्ष 2001 में हुआ है।

पुरोहित सभा के धर्मशाला बनने के पीछे एक रोचक कहानी है वर्ष 1962 में किसी पन्डा द्वारा अपने यजमानों की व्यवस्था काली कमली धर्मशाला में की गई थी, परन्तु जब यजमान सपरिवार गंगोत्री पहुंचा तो काली कमली प्रबन्धक ने उन्हें कमरा न दिया व पन्डे को फटकार कर भगा दिया। पन्डा ने अपने समाज में यह बात बताई।

उसी दिन सम्पूर्ण पन्डा समाज की एक आपातकालीन बैठक हुई। जिसमें गंगा नदी के तट पर संकल्प कुछ उद्देश्यों हेतु लिया गया प्रथम धर्मशाला का निर्माण व द्वितीय जिला व जाति बाँट करना । गंगोत्री में गंगा मन्दिर से 100 मी0 पीछे एक बड़ा पत्थर उत्तरकाशी मार्ग पर एवं 100 मी० आगे एक बड़ा पत्थर गौमुख मार्ग पर है।

संकल्प लिया गया कि पुरोहितों में से जिसकी जमीन इन दोनों पत्थरों के बीच होगी वह पुरोहित सभा को इस भूमि को दान दे देगा। सभी पुरोहितों ने यह संकल्प लिया व एक विशाल धर्मशाले की नींव रखी। इसके लिए सभी पुरोहितों ने यथाशक्ति आर्थिक योगदान दिया। काष्ठ कला का ज्ञान जिस किसी पुरोहित को था।

उसने श्रमदान किया। धर्मशाले के निर्माण हेतु जंगल में लकड़ी तैयार की गई व गंगा के तट से पत्थरों की ढुलान निर्माण स्थल तक की गई। निर्माण सामग्री को सभी पुरोहित समाज के नवयुवकों ने अपनी पीठ पर लादकर निर्माण स्थल तक पहुंचाया। लगभग 3 साल के कठोर परिश्रम के बाद धर्मशाला तैयार हो गई थी।सभी पुरोहितों ने उसकी साज-सज्जा व जरूरी सामान लेने हेतु पुनः अर्थ दान किया। तीन वर्षो तक यह नियम रहा कि जिस किसी पुरोहित का यजमान उसे दक्षिणा देगा उसके 2 भाग होंगे।

आधा भाग पुरोहित सभा में जमा होगा व आधा भाग पन्डे को मिलेगा पं० जगदीश नारायण, पं० कमलेश कुमार व पं० हरिशंकर जी ने इस नियम का कठोरता से पालन करवाया धर्मशाला निर्माण के पश्चात् जिला व जाति बांट की बारी आयी। इसके लिए सम्पूर्ण भारत वर्ष के जिलों की सूची तैयार कर इसकी रूपरेखा निश्चत की गई व गंगा नदी के तट पर जिला बांट हुई। परन्तु कुछ खामियों के कारण यह कार्य सफल न हो सका था।

अतः पुरोहित समाज में फूट पड़ गयी। अधिकांश व्यक्तियों ने जिनकी जमीन पर धर्मशाला बनी थी। उन्होंने धर्मशाला पर कब्जा कर लिया काफी लम्बे समय तक पन्डा समाज असंगठित रहा इस हेतु न्यायालय में वाद भी चला। सन् 1983 में जब श्री हरिशंकर जी की अध्यक्षता में नवीन कार्यकारिणी का गठन हुआ तो उन्होंने बड़े साहस के साथ धर्मशाला के कुछ कमरों व कुछ दुकानों को कब्जाधारियों से मुक्त करवाया।

आज पुरोहित सभा के पास धर्मशाले के 10 कमरे हैं। इसके अतिरिक्त तीन या चार अन्य छोटे भवन व दुकाने हैं। धर्मशाला के विकास में पिछली समितियों ने अच्छा योगदान किया है। पुरोहित सभा में वर्ष-2000 तक पुरोहितों के 5 थोक में से 5 सदस्य आते थे वर्ष-2001 में नवीन रजिस्ट्रेशन के तहत 7 सदस्यों की व्यवस्था की गई है। समिति में अध्यक्ष व सचिव की मुख्य भूमिका होती है। सभी पदाधिकारी अवैतनिक होते हैं।

मलारा कहते हैं, मैनाक हिमालय के पुत्र कहे जाते हैं। केदारखण्ड में श्री गंगाजी को मैनाक शिखर वासनी कहा गया है”। इसी धराली में अर्द्ध भूमिगत एक शिव मन्दिर है, जो कल्पकेदार क्षेत्र में विलुप्त 240 मन्दिरों में से बचा सिर्फ एक ही मन्दिर है। यहां विश्वेश्वर भगवान शिव विराजते हैं”।

कैप्टन शूरवीर सिंह पंवार के अनुसार यह मन्दिर सातवीं सदी का हर्षकालीन है। परन्तु गढ़वाल विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग की आख्यानुसार यह मन्दिर चौदवीं शताब्दी का है” ।

धराली में ही श्रीकण्ठ पर्वत से निकलने वाली एक दूसरी नदी है, जिसका नाम हत्याहारणी है। केदारखण्ड के अनुसार गंगाजी ने इस स्थान पर ब्रहमहत्या के पाप से कलंकित मनुष्यों का उद्धार किया था”। इस स्थान के ठीक सामने श्रीमुख पर्वत से आने वाली देवगंगा का संगम श्री गंगाजी से हुआ है।

इस प्रकार 3 नदियों के संगम के कारण यह क्षेत्र त्रिवेणी कहलाता है। # इस त्रिवेणी पर देव, दानव, मनुष्य, किन्नर, गन्धर्व, नाग व यक्ष सभी का वास माना जाता है। धराली ग्राम 19वीं सदी के प्रथम दशक में धारा नगरी से आये हुये दो भाईयों माण्डा धाराल व नगार्या धाराल ने बसाया था। इनके वंशज आज भी धराली ग्राम में रहते हैं। ये पंवार जाति के राजपूत हैं” ।

धराली से 3 कि०मी० दूरी पर गंगा के दाहिने पार्श्व पर हर्षिल नामक स्थान है। पौराणिक कथा के अनुसार जलन्धर नामक राक्षस की पत्नी सती वृन्दा भगवान विष्णु की परम भक्त थी तथा अखण्ड पतिव्रता नारी थी, जिसके सतीत्व के तेज के कारण भगवान शंकर भी जलन्धर का वध नहीं कर सके थे।

अतः विष्णु ने जलन्धर का रूप धरण करके वृन्दा के सतीत्व का हरण किया था। तत्पश्चात ही शिवजी जलन्धर का वध कर सके थे। जलन्धर का कटा हुआ सीस जब वृन्दा के सामने आया तो सती वृन्दा छलिया विष्णु को पहचान गई व उन्हें शिला (पत्थर) हो जाने का श्राप दे दिया था। श्री हरि विष्णु ने अपनी भक्तिनी वृन्दा को तुलसी व नदी रूप में परिवर्तित हो जाने का वरदान दिया था। हरि इसी स्थान पर शिला रूप में परिवर्तित हुए इसलिए इस स्थान का नाम हरिशिला हुआ था ।

हर्षिल शब्द इसका अपभ्रंश है। यहां पर श्री लक्ष्मीनारायण जी का मन्दिर है। जो उसी वर्णित शिला के ऊपर बना हुआ है। जो नदी इस शिला का अभिषेक करती हुई गिरती है उसे जलन्द्री नाम से जाना जाता है। हरि के शिला रूप धारण करने की वजह से ही हिन्दु धर्म में शालिग्राम” की पूजा का प्रचलन है। लक्ष्मी रूपी तुलसी को घर के आंगन में लगाने व उसके पूजन की परम्परा है।

हर्षिल में कछोरा तोक के पृष्ठ भाग से होती हुई दूसरी नदी आती है। यह नदी कालिन्दी पर्वत से निकलती है। जिससे इसका नाम कन्दोमति हुआ है। स्थानीय लोग इसे ककोड़ा गाड कहते हैं। इसको यमुना की एक धारा माना जाता है।

जो एक विशाल शिला के ऊपर है।

पौराणिक विवरण के अनुसार यहां पर भगवती दुर्गा ने चण्ड व मुण्ड नामक राक्षसों के सिरों को काटकर इसी शिला के नीचे दबा दिया था। इसके ठीक पूर्व दक्षिण की ओर चांद पर्वत है, चण्ड व मुण्ड को जीतने वाली यह माता चण्डोमति के नाम से विख्यात है, इस स्थान पर प्राचीनकाल में शिला रूप में ही पूजन की परम्परा थी। यहां पर मंदिर सर्वप्रथम टिहरी नरेश कीर्ति शाह ने बनवाया था।

इस स्थान से 2 कि०मी० पूर्व की ओर गुमगुम नामक स्थान पर कोटेश्वरी नदी है। यहाँ पर शिवजी के प्रियगण भैरव विराजमान हैं। इस स्थान पर एक विशाल शिला है, ऐसी किवदन्ती है कि गढ़तांग गढ को नष्ट करने के पश्चात राजा सोनपाल ने तिब्बती लुटेरों के सरदार का सिर काटकर इस शिला के नीचे दबा दिया था। पथिक आते-जाते उस शिला के ऊपर पैर रखते हैं।

कोटेश्वरी नदी के पार शिला पर लाल रंग से ॐ नमः सिद्धम् लिखा है स्थानीय लोग इसे प्राचीन लिपि का लेख मानते हैं। इस स्थान से 2 कि०मी० पूर्व की ओर जांगला नामक स्थान है, जहां पर ऋषि जन्हूं ने अपने ध्यान में विघ्न होने के कारण सम्पूर्ण गंगाजल का पान कर लिया था। भगीरथ की प्रार्थना पर अपने दाहिनें कान से गंगा को छोड़ा था,

जन्हूं ऋषि के इस प्रकार गंगाजल को पान करने व तत्पश्चात छोड़ने के कारण गंगाजी का नाम जन्हूं पुत्री जान्हवी हुआ था ” ।इस स्थान के पूर्व में 3 कि0मी0 दूरी पर लंका नामक स्थान है ऐसी कथा है कि रावण ने भगवान शंकर को प्रसन्न किया व उनसे शिवलिंग की प्राप्ति की थी,

उसे वह लंका में स्थापित करना चाहता था देवताओं ने श्रीगणेश से रावण के साथ छल करके लिंग छुड़ाने हेतु प्रार्थना की थी, गणेश जी ग्वाले का भेष धारण कर इस स्थान पर गाय चुंगाने लगे। जब रावण कैलाश से इस स्थान पर आया तो लघुशंका के कारण वह लिंग ग्वाले रूपधारी गणेश के हाथों में दे दिया व स्वयं लघुशंका हेतु चला गया। गणेश जी ने वह लिंग इसी स्थान पर छोड़ दिया।

रावण जब वापस आया तो लिंग को जमीन में देखकर बहुत नाराज हुआ, उसने अनेक प्रयत्न किये लेकिन शिवलिंग को नहीं उठा सका। अन्ततः इसी स्थान पर शिवलिंग को स्थापित कर प्रतिवर्ष उसकी पूजा हेतु हिमालय में आने लगा “। आज भी एक खुले स्थान पर इसी प्रकार अर्द्ध भूमिगत लिंग है। जिसे स्थानीय जन लंकेश्वर महादेव कहते हैं। इसीलिए इस स्थान को लंका के नाम से पुकारा जाता है। परन्तु कुछ लोग लंका को लांगा शब्द से जोड़ते हैं जिसका आशय द्वीप है” ।

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